लाल बहादुर शास्त्री
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वे अपने अध्यापक से इस आन्दोलन का हिस्सा बनने की अनुमति लेने गये परंतु गुरू जी ने समझाया कि, बेटा हाई स्कूल की परिक्षा में कुछ दिन बचे हैं परिश्रम करके अच्छे नम्बरों से पास हो जाओगे तो माँ को सहारा हो जायेगा। विद्यालय छोडकर आन्दोलन में जाने की इजाजत रिश्तेदारों ने भी नही दी। फिर भी युवा लाल बहादुर शास्त्री जी अपने अंतःकरण की आवाज को रोक नही पाये और अपने तथा अपनी माँ के हित को देश हित पर बलिदान करने के लिये निकल पडे।
शास्त्री जी का जन्म 2 अक्टुबर 1904 को मुगलसराय में हुआ था। पिता शारदा प्रसाद शिक्षक थे। शास्त्री जी के बाल्यकाल में ही पिता का साया सर से उठ गया था। इस तरह जिंदगी की परिक्षा बाल्यावस्था से ही शुरू हो गई । घर की आर्थिक स्थिती बहुत कमजोर थी। बालक का सहारा उनकी माँ राजदुलारी थी। पिता के न रहने पर भी उन्होने परावलंबन को कभी स्वीकार नही किया।
शाश्त्री जी एक बार 12 वर्ष की उम्र में साथियों के साथ गंगा पार मेला देखने गये थे, परंतु लौटते समय पैसा न होने के कारण गंगा नदी को तैर कर पार किया । नाना एवं मौसा के घर रहकर उनकी शिक्षा पूरी हुई। ईमानदारी तथा परिश्रम में विश्वास रखने वाले शास्त्री जी पढाई में बहुत तेज नही थे फिर भी ढृण संक्लप और मेहनत से हिन्दी विद्यापीठ से शास्त्री की परिक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उनका प्रमुख विषय दर्शन शास्त्र था। पारिवारिक स्थिति साधारण होने के बावजूद उनका लक्ष्य साधारण नही था।
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मन में देश भक्ति का जज़बा पूरे जोर-शोर से धङक रहा था। घर की आर्थिक स्थिति का भी उन्हे एहसास था। उन्होने लोकसेवा संघ में अपने मित्र अलगुराय चौधरी के साथ अछूतोद्धार का काम आरंभ किया। उनकी लगन, श्रम तथा तत्परता से लाला लाजपत राय बहुत प्रभावित हुए। शास्त्री जी संघ के आजीवन सदस्य मनोनित हुए। उन्हे सात रुपया भत्ता मिलता था जो बाद में 100 रुपये हो गया था, इसे वे घर वालों को दे देते थे। सादा जीवन उच्च विचार का अनुसरण करने वाले शास्त्री जी मित्व्यता का जिवंत उदाहरण थे। 1927 में उनका विवाह ललिता देवी से हुआ। ललिता देवी ने भी लाल बहादुर शास्त्री जी के उद्देश्य को अपना उद्देश्य बना लिया और भारत की आजादी के लिये सदैव शास्त्री जी को सहयोग देती रहीं।
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कर्तव्यनिष्ठ शास्त्री जी को जो भी काम दिया जाता वे उसे पुरी निष्ठा से करते जिसका परिणाम ये हुआ कि कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता उनपर विश्वास करने लगे। आदर्शों के प्रति निष्ठा रखने वाले शास्त्री जी जब नैनी जेल में थे। तब उनकी पुत्री बहुत बीमार हो गई थी। पैरोल पर छूटने के लिए लिखित आश्वासन देना होता था कि वे इस दौरान किसी आन्दोलन में भाग नही लेंगे। यद्यपि उन्हे जेल से बाहर आन्दोलन में हिस्सा लेना मना था फिर भी उन्होंने ये बात लिखकर नही दी अंत में जेलर को उन्हे कुछ दिनों की छुट्टी देनी पडी़ ताकि वे अपनी बेटी को देखने जा सकें। जेल में शास्त्री जी अपने हिस्से की वस्तुओं को दूसरों को देकर प्रसन्न होते थे। एक बार एक जरूरत मन्द कैदी को उन्होने अपना लैंप दे दिया और स्वयं सरसों के तेल के दिये में टाल्सटाय की किताब अन्ना केरिनिना पढ़ी। जेल जीवन उनके लिये तपस्या के समान था। उनके व्यवस्थित और सरल जीवन को देखकर जेल अधिकारी तथा सहयात्री आश्चर्य करते थे। आजादी के आन्दोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। जेल में ही उन्होने मैडम क्यूरी की जीवनी हिन्दी में लिखी थी। इस काल में उन्होने कई ग्रंथ भी पढे।
इसी युद्ध की समाप्ति के लिए शाश्त्री जी रूस के ताशकंद शहर गए और समझौते पर हस्ताक्षर करने के ठीक एक दिन बाद 11 जनवरी 1966 को कुछ दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटने के कारण शास्त्री जी का देहांत हो गया। इस खबर को सुनकर विश्व के अनेक नेताओं की आँखें नम हो गईं। उनका जीवन परिवार तक सिमित नही था, वे पूरे देश के लिये जिये और अंतिम यात्रा भी देश हित के विचार में ही निकली। 2 अक्टुबर को जन्मे शास्त्री जी सच्चे गाँधीवादी थे। सादा एवं सच्चा जीवन ही उनकी अमुल्य धरोहर है।
आज उनके जन्मदिवस पर हम उन्हें स्मरण करते हैं और भारत माता के लिए किये गए उनके बलिदान को कोटि-कोटि नमन करते हैं।
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